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Monday, December 29, 2008

मैं जी रहा बेचकर अंग अपने, ढो रहा जिस्म आधा अभी भी!

इंसान हों, या हों मेमने
आज बाज़ार में
क्या-क्या ना बिके!
खून- गुर्दे बिके, और बिके फेफड़े
क्योंकि देनी है "डाली"
नौकरी के लिए!

मुझसे तो बेहतर हैं
वे मेमने जो बिककर हैं सोये, सदा के लिए
मैं जी रहा
बेचकर अंग अपने,
ढो रहा जिस्म आधा
अभी भी लिए!

9 comments:

  1. बहुत बढ़िया!

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  2. बहुत बढ़िया !
    घुघूती बासूती

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  3. बहुत प्रभावशाली और यथाथॆपरक रचना है । आपकी पंिक्तयां वास्तिवकता को िजस सुंदर तरीके से अिभव्यक्त करती हैं, वह बडा हृदयस्पशीॆ है । भाव और िवचार के समन्वय ने रचना को मािमॆक बना िदया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है- आत्मिवश्वास के सहारे जीतंे िजंदगी की जंग-समय हो पढें और प्रितिक्रया भी दें-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  4. बहुत ही दर्दनाक... आप की इस कविता मै एक मजबुर ओर गरीब इनंसान की मजबुरियां झलकती है.
    धन्यवाद

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  5. मुझसे तो बेहतर हैं
    वे मेमने जो बिककर हैं सोये, सदा के लिए
    मैं जी रहा
    बेचकर अंग अपने,
    ढो रहा जिस्म आधा
    अभी भी लिए!

    bahut gambhir chitan

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  6. मैं जी रहा
    बेचकर अंग अपने,
    ढो रहा जिस्म आधा

    abhi yahi koi 5 mahine pehale hmaare yahaan ik aisa hi case aaya.....ik budhe aadmi ko stomceh me stone btaa ke uski kidney nikal li gyi.....pura case kisi ke smjh me nhi aya...kam se kam 3 din tak news me aaya...magr fir chowthe din...koi aur main news mil gyi shayad...iliye us news ka kuch pta nhi lgaa...........wo budhe baba bhi aise hi jii rhe honga

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  7. वीनस जी ! आपने सही कहा ...ऐसा भी होता है....... मेडिकल प्रोफेशन में होने के कारण ऐसी घटनाओं के बारे में जानकारी होती रहती है, पैसे के लोभ नें मनुष्य को क्या से क्या बना दिया है.......ओपरेशन थियेटर में रोगी अपने को पूरी तरह डाक्टर के हाथों सौंप देता है ....उसे क्या पता जीवन देने वाला उसके साथ क्या करने वाला है ........विश्वास घात की निष्ठुर पराकाष्ठा .....हम ऐसे ही युग में जीने के लिए बाध्य हैं ........ईश्वर हम सबको सद्बुद्धि दे .

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  8. वे मेमने जो बिककर हैं सोये, सदा के लिए मैं जी रहा बेचकर अंग अपने, ढो रहा जिस्म आधा अभी भी लिए! .......मिश्रा जी ..सादर अभिवादन ..इन शब्दों में आपने इस भ्रस्ट व्यवस्था से त्रस्त हो अपने मार्मिक विचारो को बखूबी रखा है. इसके लिए आजादी की एक एक और जंग लड़नी होगी .... पर वास्विकता यह भी है की इस भ्रस्ट व्यवस्था के हम भी कही न कही जिम्मेदार है.. उस भूल को सुधारना होगा............. सामाजिक दायित्व को भुलाकर हम कब तक जिन्दा रह पाएंगे , क्या बनेगे मेमने या,हम आधा भी जिस्म ढो पाएंगे.............

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