अध्यापक हूँ ........शायद पुराने युग के किसी आचार्य की आत्मा हूँ ....चारो ओर के तमस से छटपटा रहा हूँ .......ये कैसी बेकली है .....प्राण निकलने-निकलने को होते हैं .....पर निकलते नहीं ......और इसीलिये मैं अभी तक ज़िंदा हूँ - कौशलेन्द्र
मूल्य छूट रहे हैं
मर्यादाएं टूट रही हैं
छोटे-बड़े का लिहाज़
सब खो रहा है आज
ज़माना सो रहा है
..........................ओर मैं ज़िंदा हूँ .
विद्या के नाम पर
गली कूंचों के बदबूदार घर
स्कूल बन बैठे
नामुराद सौदागर ही
शिक्षादूत और अध्यापक बन बैठे
विद्या की देवी रो रही है
...................और मैं ज़िंदा हूँ
जो चली है लहर, उसकी धार से
बचपन घर-घर बीमार हो रहा है
सुनते हैं ...हर दवा में घुला है ज़हर
पीढियां होश खो रही हैं
..................और मैं ज़िंदा हूँ.
श्वेत पर श्याम की दीवार
रंग के साए में हर बार
मुखौटा साज़ कर मोहरे
बने फिरते चर्चित चेहरे
आवाज़ खासों की बुलंद है
आम की खामोश है
विधवा सा लगता है देश
सारा लोक रो रहा है
..........................और मैं ज़िंदा हूँ.
काठ मार गया है मुझे
देखते-देखते दोगले जीवन का सच.
सत्य अब झूठ का आँचल
पकड़ कर चल निकला पल-पल
न्याय की देवी की आँखों से पट्टी ले गया कोई
एक पलड़ा झुका ही रहता हर दम
न्याय खो रहा है
.............बेशर्मी की हद है फिर भी मैं ज़िंदा हूँ .
काफी गहरे विचार प्रकट किये हैं आपने ... अपनी रचना के माध्यम से ... इन परिस्तिथियों में भी हम जाने कैसे जिन्दा हैं ..
ReplyDeleteaaj jabki hamare aadarsha kho se gaye hain aur hum prakritik soch ke zariye barh rahe hain ,hamen nahi pata ki sahi kya hai phir bhi logon ke liye jeena achchha hai.
Deleteबहुत बढ़िया लिखते हैं सर.
ReplyDeleteअव्यवस्था पर गहन रचना ...
ReplyDeleteबहुत ही गहन और सटीक रचना।
ReplyDeleteरोशन वर्मा जी का उत्साह वर्धन के लिए आप सभी का धन्यवाद !
ReplyDeleteAB LAGNE LAGA HAI KI LIKHNA HI HOGA.
ReplyDeleteuncleji mai soch rhi ki kya kahu qki mai student hu ...
ReplyDeleteसोनू जी ! अब तो आप को ही सब कुछ कहना है । गिरते हुये मूल्यों ने शिक्षा की जो दुर्दशा की है उसके लिए छात्र-छात्राओं को ही अब सामने आना होगा क्योंकि इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव तो आप लोगों पर ही हो रहा है न!
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