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Friday, March 30, 2012

जयंत कुमार थोरात की एक हज़ल


इंसान् हो, इंसान की पहचान रख़ना,
संग अपने हिन्दू और मुस्लमान रख़ना।


राहत मयस्सर करने मुसाफ़िरों को धूप से,
मकान में ज़रूर अपने एक दालान रखना।


खो न जाओ जहां की बेहिसाब भीड़ में तुम,
लाज़िमी है अपनी अलग पहचान रखना।


हर्फ़ों के ज़ख़्म ख़ंज़र से भी गहरे होते हैं,
मिश्री से भी मीठी अपनी ज़ुबान रखना।


बुलन्दी आसमां की कम नज़र आने लगे,
ऊँचा इतना तुम अपना ईमान रहना।


हर ख़ता की सज़ा ख़ुद ही मिलती है,
किसी के लिये न दिल में इंतकाम रखना।


भूलने में आजकल वक़्त कहाँ लगता है,
दिल मे यादों के कुछ मेहमान रखना।


उम्र भर ख़ुदा को न किया याद, कोई बात नहीं
आख़िरी वक़्त अपने संग गीता या कुरान रखना।
  

Tuesday, March 20, 2012

लड़कियाँ - जयंत कुमार थोरात


घर में, आँगन के फूलों सी खिलती हैं लड़कियाँ,
नसीब वालों के ही घर में पलती हैं लड़कियाँ

ख़ुदा की भेजी पाक नेमत सी नज़र आती हैं,
घर के दालानों में जब टहलती हैं लड़कियाँ

हवा के झोंकों से झूमती कलियों सी नज़र आती हैं,
अपनी किसी ख़्वाहिश पर जब मचलती हैं लड़कियाँ

जब तक क़रीब हैं, रखो ख़ुशियों से सराबोर इन्हें,
जल्द ही नैहर के बाहर निकलती हैं लड़कियाँ

हर हाल में जी लेना इनकी फ़ितरत में है शामिल,
सुख-दुःख के साँचे में जल्द ही ढ़लती हैं लड़कियाँ

कदम इनके किसी इबादत से कमतर तो नहीं 'थोरात',
खिलखिलाती हैं जब-जब, लोबान सी महकती हैं लड़कियाँ

नज़ाकत को इनकी कमज़ोरी समझने वालो,
अपनी पे आ जायें तो अंगारों सी दहकती हैं लड़कियाँ

सरस्वती हैं, लक्ष्मी हैं, कल्याणी हैं मगर फिर भी
ज़मीं पे आने से पहले ही क़त्ल हो जाती हैं लड़कियाँ