इंसान् हो, इंसान की पहचान रख़ना,
संग अपने हिन्दू और मुस्लमान रख़ना।
राहत मयस्सर करने मुसाफ़िरों को धूप से,
मकान में ज़रूर अपने एक दालान रखना।
खो न जाओ जहां की बेहिसाब भीड़ में तुम,
लाज़िमी है अपनी अलग पहचान रखना।
हर्फ़ों के ज़ख़्म ख़ंज़र से भी गहरे होते हैं,
मिश्री से भी मीठी अपनी ज़ुबान रखना।
बुलन्दी आसमां की कम नज़र आने लगे,
ऊँचा इतना तुम अपना ईमान रहना।
हर ख़ता की सज़ा ख़ुद ही मिलती है,
किसी के लिये न दिल में इंतकाम रखना।
भूलने में आजकल वक़्त कहाँ लगता है,
दिल मे यादों के कुछ मेहमान रखना।
उम्र भर ख़ुदा को न किया याद, कोई बात नहीं
आख़िरी वक़्त अपने संग गीता या कुरान रखना।
दुनिया में बेशक तुम्हे कोई जानता ना हो...
ReplyDeleteमगर खुद से और खुदा से अपनी पहचान रखना...
अनु