ऋषिका दुबे फ़ार्मेसी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। कागज़ को काला करना इनका शौक तो नहीं पर ज़रूरत अवश्य है.... ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे अनुभवों की रंगोली सजाना अच्छा लगता है। ज़िन्दगी की आँख मिचौली हैरान करती है इन्हें। आज प्रस्तुत है उनकी यह रचना -
एक साल बाद
सुन रही हूँ ....................
दरवाज़े पर दस्तक दी है किसी ने
कौन होगा ?
कहीं ज़िन्दगी तो नहीं ?
याद करती हूँ.....
हाथ थामे
घूमा करते थे हम बाज़ार में
अचानक हाथ छूट गये और कब
आगे निकल आयी मैं
पता ही नहीं चला।
ये अकेलेपन की उदासी थी
लम्बा वक़्त लग गया
इससे जूझने में।
साल बीत गया, हमें
बाज़ार घूमे हुये।
उदासी भी कोई ऐसी-वैसी नहीं थी
दिन सुबकते रहे
रातें सिसकती रहीं
लम्हों की रेत हाथों से खिसकती रही
पर ज़िन्दगी ने, देखो
हार नहीं मानी,
गली-गली नाम पूछती रही मेरा;
चेहरों की भीड़ में
चेहरा ढ़ूँढ़ती रही मेरा।
दरवाज़े पर रखे हाथ
काँप रहे हैं मेरे
उसकी आँखों में मेरी तलाश की बेचैनी
कोई भी पढ़ सकता था।
एक दिन, गहरी साँस ले
कुछ हिम्मत जुटाई
खोल दिये उदासी भरे तहख़ाने के दरवाज़े
और ये क्या!!!
यहाँ तो तुम हो,
मदमस्त हवाओं की मुस्कान
होठों पर सजाये
खिलते हुये चाँद की चमक
आँखों में बसाये
बाहों में पूरे जहां की खुशियाँ हैं तुम्हारे
और चेहरे पर स्वर्णिम भविष्य का तेज़।
सोचा था,
ज़िन्दगी मुझे ढ़ूँढ़ती होगी दर-दर
पर ये तो तुम थे
जो उसे मेरे लिये फिर ढ़ूँढ़ लाये
एक साल बाद....
फिर ज़िन्दा-ज़िन्दा हूँ मैं।
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