जिसे उत्तर प्रदेश में बांदा या बन्दा कहते हैं उसे ही छतीसगढ़ में बेंदा के नाम से जाना जाता है .........बड़े वृक्षों पर पलने वाला यह एक परजीवी पौधा है ..........जैसे विशाल जन समुदाय के खून से अपना पोषण प्राप्त करने वाले कुछ मुट्ठी भर परजीवी लोग........
रोशन वर्मा से एक महुए की हालत देखी न गयी .......सूखता महुआ और खिलखिलाता बेंदा ....उन्हें अन्दर तक झकझोर गया .....- कौशलेन्द्र.
बेन्दा खुश है
खिल रहा है
फल-फूल रहा है
महुआ की शाखों पर
कहीं आम ...बिही...
कहीं अनार की डालों पर
महुए की पत्तियाँ
सिकुड़ गयी हैं .....
सूख रही हैं .........
डालियाँ जकड गयी हैं .........
उसकी शाखाओं पर फोड़े उग आये हैं.
बेंदा ......
अधिकार कर चुका है
उसकी रक्त वाहिनी पर
बेंदा ..
कदाचित इसीलिये
पूजन सामग्री भी है
लोग तलाशते हैं इसे
समृद्धि की लालसा में.
उधर महुआ
सूख रहा है
क्योंकि महुए पर बेंदा फ़ैल रहा है
और महुए पर ही क्यों ....
अब तो आसपास के पेड़ों पर भी ...
लगता है
एक दिन
पेड़ों का रक्त चूसते
परजीवी बेंदे ही होंगे
शासक
इन जंगलों के .
बेंदा ही क्यों,पूरी सृष्टि परजीवी है।
ReplyDeleteवाह क्या बात है। बहुत ही सरल और सहज भाषा में वर्तमान विसंगतियो , विषमताओं.... की ओर संकेत। रोशन जी तक बधाई प्रेषित करियेगा।
ReplyDeleteकुमार जी ! ..मालिनी जी ! आपका सादर आभार! रोशन वर्मा जी प्राचार्य हैं ....अपनी बच्ची को स्कूल छोड़ने के बाद लौटते समय एक सूखते जा रहे महुआ के वृक्ष को देख कर वे द्रवित हो गए .....और यह कविता बह चली ..........
ReplyDeleteआपका बधाई सन्देश उन तक प्रेषित कर दिया जाएगा.
बहुत ही सशक्त कविता है ....
ReplyDeleteकिसी परजीवी पौधे को माध्यम बना
आज की विसंगतियों पर करारी चोट की है रोशन जी ने ....
हमारी बधाई आप दोनों को ....
बहुत अच्छी रचनायें पढवा रहे हैं ....
best..........
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